मुंबई, 25 नवंबर, (न्यूज़ हेल्पलाइन) क्या आपने कभी खुद को पुराने प्लास्टिक के डिब्बे धोते हुए, अमेज़न के खाली बॉक्स सहेजते हुए, या अपने माता-पिता की तरह 'फालतू' खर्च पर तुरंत लाइट बंद करते हुए पकड़ा है? जिस आदत पर आप बचपन में हँसते थे, 30 की उम्र (Midlife) आते-आते वही आदतें खुद में देखकर हैरान मत होइए। मनोविज्ञान कहता है कि ऐसा होने के पीछे एक गहरा कारण है।
📦 चीज़ें सहेजने की आदत
परामर्शदाता गौरव सोलंकी जैसे कई लोग मानते हैं कि वे बचपन में माता-पिता के हर प्लास्टिक के डिब्बे, पुराने बोतल या अखबार सहेजने पर हँसते थे, लेकिन अब वे खुद 'अच्छी क्वालिटी' के कहकर अमेज़न के डिब्बों या प्रीमियम पेपर बैग्स का ढेर लगाते हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह प्रवृत्ति केवल भौतिक चीज़ों तक सीमित नहीं है; यह अब डिजिटल क्लटर (Digital Clutter) जैसे कि सैकड़ों स्क्रीनशॉट, बच्चे की तस्वीरें, और ऐसे वीडियो को फोन में सहेजने के रूप में भी दिखती है जिन्हें देखने का समय कभी नहीं मिलता।
🧠 आखिर क्यों लौटते हैं पुरानी आदतों की तरफ?
मनोचिकित्सक और लाइफ कोच डेलना राजेश के अनुसार, 30 का दशक वह समय होता है जब जिम्मेदारी अपने चरम पर होती है। करियर का दबाव, बच्चों की देखभाल, माता-पिता की बढ़ती उम्र और वित्तीय तनाव बढ़ने लगता है।
ऐसे में, मस्तिष्क असुरक्षा की भावना से बचने के लिए अपने सबसे शुरुआती सुरक्षा खाके (earliest templates for security) की तलाश करता है।
सुरक्षा का ब्लूप्रिंट: बचपन में, माता-पिता द्वारा चीज़ों को सहेजने और बर्बाद न करने की ये छोटी आदतें स्थिरता और सुरक्षा का ब्लूप्रिंट थीं।
भावनात्मक सहारा: जब वयस्क जीवन भारी पड़ने लगता है, तो दिमाग उन्हीं आदतों को दोहराता है। खाली बोतल को सहेजकर, आप न केवल माता-पिता की नकल कर रहे होते हैं, बल्कि बचपन की उस सुरक्षित और व्यवस्थित भावना को भी दोबारा पैदा कर रहे होते हैं।
💡 बचत की समझदारी या मजबूरी?
कई लोग अब अपने माता-पिता की इन आदतों को 'मजाकिया' नहीं, बल्कि 'समझदारी' के रूप में देखते हैं। पीआर प्रोफेशनल प्रमा रॉय चौधरी बताती हैं कि कैसे वह अपनी माँ की तरह हर जैम या अचार के डिब्बे को संभालकर रखती हैं क्योंकि वे "सीक्रेट सेवियर" होते हैं।
यह व्यवहार अक्सर कमी की याद (Scarcity Memory) से भी जुड़ा होता है। जिन माता-पिता ने जीवन में अभाव देखा, उन्होंने संरक्षण (Conservation) की आदतें अपनाईं। भले ही उनकी संतानें आज आर्थिक रूप से समृद्ध हों, लेकिन उनका तंत्रिका तंत्र (Nervous System) बर्बादी से बचने के लिए तार-तार रहता है।
संक्षेप में, हम अपने माता-पिता तब बन जाते हैं जब जीवन हमसे सबसे अधिक माँग करता है। यह हमारे दिमाग का एक भावनात्मक तरीका है यह कहने का कि: "उस चीज़ पर वापस जाओ जिसने तुम्हें स्थिर रखा।"