राधाचरण गोस्वामी का जन्म 25 फरवरी 1859 को हुआ था। उनके पिता गल्लूजी महाराज यानि गुणमंजरी दास जी (1827-1890 ई.) एक भक्त कवि थे। उनमें कोई धार्मिक कट्टरता या रूढ़िवादिता नहीं थी, प्रगतिवाद और सामाजिक क्रांति की उज्ज्वल चिंगारी थी। उनमें राष्ट्रवादी राजनीति की प्रबल चेतना थी। भारत की तत्कालीन राजनीतिक और राष्ट्रीय चेतना की नब्ज पर उनकी उंगली थी और राधाचरण गोस्वामीजी ने नवजागरण की मुख्यधारा में सक्रिय और प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने 1883 में उत्तर-पश्चिम और अवध में स्वशासन की मांग की। मासिक समाचार पत्र 'भारतेंदु' में उन्होंने 'उत्तर-पश्चिम और अवध में स्वशासन' शीर्षक से एक संपादकीय लिखा। 19वीं सदी के अंत में, बनारस, इलाहाबाद, पटना, कलकत्ता और वृन्दावन पुनर्जागरण के पाँच प्रमुख केंद्र थे। राधाचरण गोस्वामी वृन्दावन केन्द्र के एकमात्र शाश्वत प्रतिनिधि थे।
नगर पालिका सदस्य
पंडित राधाचरण गोस्वामी पहली बार 1885 में वृन्दावन नगर पालिका के सदस्य के रूप में चुने गए थे। 10 मार्च, 1897 को वे तीसरी बार नगर पालिका के सदस्य चुने गये। उन्होंने नगर पालिका के माध्यम से वृन्दावन की कुंज गली में छह पक्की सड़कें बनवाईं।
क्रांतिकारियों में आस्था
पंजाब केसरी लाला लाजपत राय दो बार वृन्दावन आये। दोनों बार गोस्वामीजी ने उनका भव्य स्वागत किया। यद्यपि ब्रजमाधव गौड़ीय संप्रदाय के सर्वश्रेष्ठ आचार्य थे, फिर भी उन्होंने सार्वजनिक रूप से भारत के राष्ट्रीय नेताओं के रथ के घोड़ों के बजाय अपना रथ खींचकर उनके प्रति अपनी महान भावनाओं को प्रदर्शित किया। उस समय के महान क्रांतिकारियों को उन पर आस्था और विश्वास था और उनके साथ मधुर संबंध थे। 22 नवंबर, 1911 को महान क्रांतिकारी रासबिहारी बोस और योगेश चक्रवर्ती उनके घर गये और उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। उस अवसर पर प्रेम के भाव से गोस्वामीजी की दोनों आंखें डबडबा गयीं।
कांग्रेस कार्यकर्ता
गोस्वामीजी कांग्रेस के आजीवन सदस्य और अग्रणी कार्यकर्ता थे। 1888 से 1894 तक वे मथुरा कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे।
साहित्यिक योगदान
गोस्वामी राधाचरण के साहित्यिक जीवन की उल्लेखनीय शुरुआत 1877 में हुई। इसी वर्ष उनकी पुस्तक 'शिक्षामृत' प्रकाशित हुई। यह उनकी पहली पुस्तक-जैसी कृति है। इसके बाद उन्होंने मौलिक एवं अनूदित पुस्तकों सहित पचहत्तर पुस्तकों की रचना की। इसके अलावा उनकी विभिन्न श्रेणियों की तीन सौ से अधिक रचनाएँ समसामयिक पत्र-पत्रिकाओं में फैली हुई हैं, जिनका आज तक संकलन नहीं हो सका है। उनकी साहित्यिक उपलब्धियों की कई दिशाएँ हैं। वे कवि तो थे ही, उन्होंने हिन्दी गद्य की विभिन्न शैलियों का भी प्रचार किया। उन्होंने राधा-कृष्ण की लीलाओं, प्रकृति के सौंदर्य और ब्रज की संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर काव्य रचना की। कविता में उनका उपनाम 'मंजू' था।
राधाचरण जी ने मौलिक समस्या प्रधान उपन्यास लिखे। 'बाल विधवा' (1883-84 ई.), 'अवर्णश' (1883-84 ई.), 'अलकचंद' (अपूर्ण 1884-85 ई.), 'विधवा विपत्ति' (1888 ई.) 'जावित्रा' (1888 ई.) आदि। वे प्रेमचंद नहीं, हिंदी के पहले समस्याग्रस्त उपन्यासकार थे। 'वीरबाला' उनका ऐतिहासिक उपन्यास है। इसकी रचना उन्होंने 1883-84 ई. में की थी। उन्होंने हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास प्रारम्भ किया। ऐतिहासिक उपन्यास 'दीप निर्वाण' (1878-80 ई.) और सामाजिक उपन्यास 'विरजा' (1878 ई.) उनके द्वारा अनुवादित उपन्यास हैं। उन्होंने लघु उपन्यासों को 'नवान्यास' कहा। 'कल्पलता' (1884-85 ई.) और 'सौदामिनी' (1890-91 ई.) उनके मौलिक सामाजिक उपन्यास हैं। प्रेमचंद से पहले ही गोस्वामीजी ने समस्यामूलक उपन्यास लिखकर हिंदी में एक नई प्रवृत्ति की शुरुआत की थी।
मौत
दिसंबर 1925 में राधाचरण गोस्वामीजी का निधन हो गया। राधा चरण जी भारतेन्दु युग के कवि और नाटककार होने के साथ-साथ संस्कृत भाषा के विद्वान भी थे। आपने सदैव सामाजिक कुरीतियों का कड़ा विरोध किया और इसी कारण आप ब्रह्म समाज की ओर भी आकर्षित हुए।
कृतियाँ
गोस्वामी जी ने मौलिक नाटकों की रचना की और बांग्ला भाषा की अनेक पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएं इस प्रकार हैं-
'सती चंद्रावती'
'अमर सिंह राठौर'
'सुदामा'
'तन मन धन श्री गोसाई जी को अर्पण'
राधाचरण जी ने समस्या प्रधान मौलिक उपन्यास लिखे। ‘बाल विधवा’ (1883-84 ई.), ‘सर्वनाश’ (1883-84 ई.), ‘अलकचन्द’ (अपूर्ण 1884-85 ई.) ‘विधवा विपत्ति’ (1888 ई.) ‘जावित्र’ (1888 ई.) आदि। वे हिन्दी में प्रथम समस्यामूलक उपन्यासकार थे, प्रेमचन्द नहीं। ‘वीरबाला’ उनका ऐतिहासिक उपन्यास है। इसकी रचना 1883-84 ई. में उन्होंने की थी। हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास का आरम्भ उन्होंने ही किया। ऐतिहासिक उपन्यास ‘दीप निर्वाण’ (1878-80 ई.) और सामाजिक उपन्यास ‘विरजा’ (1878 ई.) उनके द्वारा अनूदित उपन्यास है। लघु उपन्यासों को वे ‘नवन्यास’ कहते थे। ‘कल्पलता’ (1884-85 ई.) और ‘सौदामिनी’ (1890-91 ई.) उनके मौलिक सामाजिक नवन्यास हैं। प्रेमचन्द के पूर्व ही गोस्वामी जी ने समस्यामूलक उपन्यास लिखकर हिन्दी में नई धारा का प्रवर्त्तन किया था।